कहाँ जाएं कुम्भकार, खो गया बाजार

संजय कुमार पाल की रिपोर्ट
बिहार: प0 चम्पारण बगहा अनुमंडल अंतर्गत धार्मिक उत्सवों के अलावे पर्व व त्योहारों के अवसर पर भी अब मिट्टी के बर्तनों की मांग घटती जा रही है। जिसके कारण मिट्टी के शिल्पकारों की संख्या भी कम होने लगी है। बदलते जमाने में लोगों की चाहत व आवश्यकता भी तेजी से बदल रही है। जिसका प्रभाव मिट्टी के शिल्पकारों पर भी सीधा पड रहा है। फलतः मिट्टी के शिल्पकारों का जीविका प्रभावित हो रही है। इस बाबत मिट्टी के शिल्पकार पतिलार के रामसागर पंडित, अजित पंडित झारमहूई के भरत पंडित, बथवरिया के रामजी पंडित आदि बताते हैं कि मिट्टी के शिल्पकारों के बुरे दिन चल रहे हैं। मिट्टी की बर्तन की पूछ तेजी से घट रही है।कारण कि प्लास्टिक से बने बर्तन सस्ता व टिकाऊ मिल रहा है। जिससे लोगों की वह पहली पसंद हो गई है। अब तो पहले जैसा मिट्टी के बर्तन का बाजार भी नहीं लग रहा है। बाजार ले जाने पर ज्यादातर खाली हाथ ही लौटना पड़ा रहा है। मिट्टी के बर्तन का निर्माण खर्च भी बढ़ गया है। प्रति ट्रेलर 1000₹ चुकाने  के बाद मिट्टी घर तक पहुंचाया जाता है। जलावन की भी समस्या है। एक भट्ठा में दस हजार रुपये लागत है। जिसकी भरपाई बहुत कम लोगों को हो पाती है। इस साल दीपक प्रति सैकड़ा 60 रुपये, प्रति घड़ा 40 रुपये, छठ के अवसर पर हाथी 100 रुपये, कुंडेसर 250 रुपये, प्रति कोसा चार रुपये मिल रहे हैं। पतिलार कारखाना टोला की महिला शांति देवी ने बताया कि अपनी जिंदगी तो जैसे-तैसे कट रही है।परंतु हम अपने बच्चों को इस पुस्तैनी पेशे में नहीं आने देंगी।कारण की अब मिट्टी के शिल्पकारों की पूछ नही हो रही है।

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